आप सभी का फिरसे ह्रदय से स्वागत करती हूँ और धन्यवाद् करती हूँ, की आप अपना किंमती समय निकाल कर यहाँ आध्यात्मिक जगत में आये। मुझे पूर्ण विश्वास हैं की आप इस कठिन समय में भी कुशल मंगल ही होंगे और अपना और अपनों का ख्याल भी रख रहे होंगे। आज कुछ अलग ही विषय लेकर आपके समक्ष हूँ। आज बस सोच ही रही थी की प्रेम क्या होता हैं? इस पर चर्चा की जाएं ताकि आप सभी को उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो। और आप अपने जीवन के फैसले उचित कर सके इसी कामना से में ये लेख लिख रही हूँ। यदि आप ये पढ़ रहे हैं तो मैं आपसे कहूँगी की शांत चित्त होकर इस लेख को अपने अंतर उतारिए क्योंकि यह सिर्फ एक लेख नहीं अपितु एक ज्ञान हैं जो आपके जीवन में चल रही बाधाओं का एक मार्ग हैं। तो आज इस विषय को मैं बहोत सरल शब्द में आपको समझाने का प्रयास करुँगी। ऐसा सोचियेगा की कोई आपका गुरु ही आपको मार्ग दिखा रहा हैं। पर मैं कोई गुरु नहीं पर हाँ, मैं गुरु की शिष्य अवश्य हूँ और मुझे शिष्य बनकर ही रहना हैं। मैं बस सीखना ही चाहती हूँ कोई गुरु नहीं बनना चाहती क्योंकि गुरु एक बहोत ही विराट शब्द है जो ब्रह्माण्ड हैं और मैं उनका अंश मात्र। इसलिए मुझे गुरु न कहे बस आप अपने इष्ट का या गुरू का ध्यान कर के ही इस लेख को पढ़िए तो आपको लगेगा की आपके इष्ट या गुरु ने आपको मार्ग दिखाया हैं।
तो समझते हैं की प्रेम क्या हैं ? प्रेम एक ऐसी बात हैं जो हर कोई अपने जीवन में पाना चाहता हैं। परंतू हर किसी के नसीब में सत्य प्रेम नसीब नहीं होता। यदि प्रेम मिल भी जाएं तो क्या आप उस प्रेम को अपने जीवन में धारण कर पातें हो? जिसे आप प्रेम करते हो वो किस प्रकार का प्रेम हैं ? ये प्रेम हैं भी या नहीं? की मोह हैं ? क्या आप प्रेम को समझते हो? कितनी गहराई से प्रेम को समजझते हो? क्या आपमें वो क्षमता हैं की प्रेम को जीवन भर समर्पित रहे? और ये ढाई आखर प्रेम के क्या हैं? हर किसी के लिए प्रेम की व्याख्या और सोच अलग-अलग हैं। कोई रिश्तों में ढूंढता हैं तो कोई किसी आदत में और कोई किसी वस्तु में। पर वास्तविक में प्रेम क्या हैं? क्या आपने प्रेम किया हैं? और वो भी पूर्ण समर्पित भाव से, पूर्ण श्रद्धा से? चाहे वो किसी से भी हो इष्ट से हो, गुरु से हो, जानवर से हो व्यक्ति से हो या आत्मा से हो। यदि नहीं तो आप अवश्य ही दुखी हो और यदि हाँ, तो फिर आप जीवन के सबसे सौभाग्यशाली व्यक्ति हैं क्योंकि प्रेम ही एक मात्र ऐसा पर्याय हैं की, बड़े से बड़े तकलीफों को और जटिल से जटिल स्वाभाव वाले या कठिन से कठिन रास्तें भी आसान हो जाते हैं।वास्तविक में प्रेम जब हम अपने आपसे करते है तब वो प्रेम होता है इसे स्वार्थ नहीं प्रेम कहते है, क्योंकि स्वार्थ सिर्फ स्वयं का होता हैं परंतु प्रेम जब आप अपने आप से करते हो तो आप दूसरों को भी अपने भाति समझने लगते हो। कैसे कह सकता हैं कोई की प्रेम दुःख देता हैं? प्रेम नहीं हमारी आशाएं और इच्छाएं हमें दुःख देती हैं। जिस तरह से हम किसी की आशाएं और इच्छाएं पूरी नहीं कर पाते तो फिर हम किसी और से यह आशा क्यों लगाते हैं की वो हमारे अनुसार चलेगा? हमारी आशाएं और इच्छाएं पूरी करेगा ? सोचिए क्या यह सत्य नहीं हैं ? क्या आप ऐसा नहीं करते ? इसलिए तो आप प्रेम बाहर खोज रहे हैं किन्तु वह तो आपके भीतर हैं।
ब्रह्माण्ड में परमेश्वर के बाद यदि पवित्र और सत्य कुछ हैं तो वो निश्चित और निश्चित प्रेम ही हैं। इस ब्रह्माण्ड में एक मात्र प्रेम ही सत्य है, पवित्र हैं, शीतल है, शांत हैं, आनंद हैं, क्षमा, सहनशील और मोक्ष हैं। और ये आध्यात्मिक के बिना असंभव हैं। और ये सारे लक्षण और गुण अध्यात्म से हैं। मैं वारंवार यही दोहराती रहती हूँ की अध्यात्म के बिना प्रेम को पाना, समझना और जीवन में प्रेम को धारण करना असंभव हैं। प्रेम एक ही होता हैं पर उसके कई रूप होते हैं जैसे की पहले भी बताया की किसी व्यक्ति से, इष्ट से, वस्तु से, आदत से और इत्यादि। किन्तु यह मोह है प्रेम नहीं। कैसे ? अब आप कहेंगे की प्रेम तो हैं आप ऐसे कैसे कह सकते हैं की प्रेम नहीं ? हाँ , बताइयें ? क्या आप जो प्रेम समझ रहे हैं क्या वो प्रेम हैं? नहीं ये प्रेम नहीं ये मोह हैं, पसंद हैं, आदत हैं, या फिर वासना हैं। ऐसा क्यों कहा मैंने ? आईए ,समझाती हूँ।
चाहे आप कितने भी ज्ञानी हो, ध्यानी हो, योगी हो, या बुद्धिमान हो अगर आपने प्रेम नहीं किया तो, आपका जीवन ही व्यर्थ हैं ज्ञान पढ़ लेने से कोई पंडित नहीं होता पर जो पूर्ण ह्रदय से प्रेम करता हैं जो भावनाओं को समझता हैं वही सच्चा प्रेमी हैं वही पंडित हैं, यही प्रेम हैं। प्रेम एक नशा होता हैं जो भीतर से आनंद को बहाता हैं जो एक समाधी अवस्था जैसी हालत होती हैं। प्रेमी मतलब संत जो कभी बाहर तो कभी भीतर इस आनंद में बहते हैं, और प्रेम ही आपको समाधी की और मोक्ष की और ले जाता हैं सत्य के तरफ ले जाता हैं। तभी तो संत हमेशा समाधी में ही रहते थे। जो दो आत्मा के बीच प्रेम अनुभव होता हैं वही तो स्वयं के भीतर प्रेम अनुभव होता हैं। क्या आपने कभी संतों की आँखें देखी हैं ? देखना कभी उनकी आखें हमेशा मांथे पर ही रहती थी। इसका क्या अर्थ हैं ? अर्थ ये की वे प्रेम को, आनंद को अनुभव कर रहे हैं। और वो अपने आपमें ही पूर्ण बनने की कोशिश कर रहे हैं। वो समझते नहीं थे प्रेम को, प्रेम स्वयं उन्हें समझता था। वे बस प्रेम को बिना समझे उसमे डूब रहे थे खोए जा रहे थे वे स्वयं प्रेम बनने जा रहे थे इसलिए तो इतनी सहनशीलता उनमे कूट-कूट के भरी थी। और जग ने कभी भी संतो को जीने नहीं दिया न कभी जग समझ पाया न उन्हें समझाने दिया। इसलिए वे अपनी बस्ती कही दूर बसा लेते थे। और आज भी यही हो रहा हैं। कहा किसी को कोई जीने दे रहा हैं सब स्वार्थ से ही तो भरे हैं। प्रेम कहा हैं? वो भीतर हैं। और प्रेम कभी भी पूर्ण नहीं होता हैं उसे पूर्ण बनाना पड़ता हैं प्रेम संपूर्ण नहीं हैं यदि वो संपूर्ण हो जाएं तो फिर जीवन जीने का अर्थ ही कहा बचता हैं। इसीलिए तो, शिवशक्ति भी एक दूसरे से पूर्ण हैं। राधाकृष्ण भी एक दूजे से पूर्ण हैं यदि भगवान ही पूर्ण नहीं प्रेम में तो आप और हम कैसे पूर्ण हो सकते हैं? कामवासना की इच्छा ख़तम हो सकती हैं किंतू प्रेम नहीं। वो अनंत हैं निरंकार हैं निर्मयी हैं। इसलिए प्रेम ढाई आखर का हैं मतलब अपूर्ण हैं इसलिए तो वो तीन नहीं है। जिसे आपका पूरक ही पूर्ण करता हैं और जिसने सत्य को समझ लिया वो फिर कहा बच पाता हैं ? क्योंकि यही तो अंत हैं। और सृष्टि का अंत तो हैं ही नहीं, बस परिवर्तन ही चलता रहता हैं और उसे ही अनंत कहते हैं। जो ख़त्म न हो, जो पूर्ण भी न हो और जो अपूर्ण भी न हो वही तो ब्रह्मा हैं प्रेम हैं। प्रेम में आप पूर्ण हो ही नहीं सकते इसे पूरा करने के लिए आपकी दूजी आत्मा ही आपको पूर्ण करती हैं। और जुड़वाँ आत्मा क्या हैं? ये मैं पिछले लेख में बता चूकी हूँ। इस विषय में बहोत कुछ तथ्य आपके समक्ष खुलूँगी।
चाहे आप कितने भी ध्यानी, ज्ञानी, बुद्ध, साधक, तपस्वी या सेवाभावी हो अगर आपने प्रेम नहीं किया तो आपने प्रेम नहीं समझा। परन्तु प्रेम कभी समझा नहीं जाता वो बस हो जाता हैं और उसका होना ही अस्तित्व का होना हैं। प्रेम यदि समझ जाएं तो फिर वो प्रेम कैसा ? प्रेम को समझना चाहते हो तो बस अपने आप को समझिये भावनाओ को जानिए। खो जाइए उसमे डूब जाईये, अगर प्रेम को समझने गए तो फिर वो प्रेम नहीं ज्ञान, ध्यान और समाधी होती हैं। फिर आप प्रेमी कहा? परमेश्वर को पाना सरल नहीं क्योंकि परमेश्वर ही प्रेम हैं। परन्तु भगवन या अपने प्रेमी को पाना है तो प्रेम बन जाईये फिर देखिये की कैसे कोई आपको दर्शन नहीं देता ? बुद्ध ने ध्यान से अपना मार्ग पाया सत्य पाया और मीरा ने प्रेम से अपने गिरधर नागर कृष्ण को पाया। और दोनों भी मोक्ष को प्राप्त हुए बस उनके तरीके और रास्ते अलग थे पर प्रेम के बिना तो ह्रदय चक्र भी खुलना असंभव हैं। मीरा ने सिर्फ प्रेम किया इसलिए वो और उनका प्रेम अमर है। यदि प्रेम चाहते हैं तो समर्पण और त्याग के बिना यह संभव ही नहीं। क्या आपमें वो मीरा की भक्ति हैं ? जूनून हैं ? समर्पण हैं ? त्याग हैं ? तो फिर आप निश्चित ही प्रेमी हैं। और जो प्रेमी बन जाते हैं वो अपने आप में ही मस्त रहते हैं वो किसी भी बंधन में नहीं रहता उसके लिए सारे बंधन टूट जाते हैं मतलब मोह छूट जाता हैं। इसे विज्ञानं में समझौ तो ऐसा की प्रेमी के तरफ जो प्रेम होता है वो हॉर्मोन्स के वजह से होता है और जो अपने प्रियजन होते हैं उनके लिए हमारा प्रेम खून से डी.एन.ए से होता हैं। इसी वजह से ये प्रेम एक नशा होता हैं। तो निरंतर उसके हृदय में सिर्फ प्रेम का ही चिंतन और प्रेमी ही रहता हैं, चाहे वो प्रेमी किसी भी रूप में हो कोई भी हो कोई फरक नहीं पड़ता। एक बार आत्मा ने उसे स्वीकार कर लिया तो जग का क्या काम? एक बार कोई प्रेमी बन गया तो वो बंधन नहीं सम्बन्ध बनाता हैं। किन्तु उसके लिए कोई बंधन नहीं होते। यहाँ मैं सम्बन्ध मतलब व्याक्ति की द्रिष्टी से नहीं आत्मा के द्रिष्टी से बता रही हूँ, काम वासना के द्रिष्टी से नहीं। कामवासना भी प्रेम में ही आती हैं किन्तु जहा शुद्ध प्रेम होता हैं वह कामवासना एक साधना के रूप में परिवर्तित होती हैं। और काम वासना एक तंत्र हैं जो सबसे शुद्ध हैं। इस विषय पर भी में अवश्य प्रकाश डालूंगी ताकि आप काम वासना और प्रेम को ठीक से समझ सके और उस अनुसार खुद को ढाल सके। कामवासना शरीर की भूक और आवश्यकता होती हैं। जो अनिवार्य भी हैं क्योंकि सृष्टि का आधार ही कामवासना से हैं तो ये गंधा विषय कहा ? परन्तु प्रेम आत्मा की भूक होती हैं जो कभी भी खत्म नहीं होती क्योंकि आत्मा अमर है तो उसके गुण भी अमर हैं उसके साथ। जो कार्य किसी मार्ग से संभव नहीं वो कार्य प्रेम से संभव हैं। इसलिए प्रेम के बिना आपको प्रभु दर्शन होना या उन्हें पाना असंभव हैं। यदि आप तपस्या करते हैं और उसमे श्रद्धा ही नहीं समर्पण भाव ही नहीं त्याग नहीं प्रेम नहीं तो फिर आपकी तपस्या व्यर्थ हैं। किसीको समझना कठिन नहीं बहोत सरल हैं। कैसे? बस अपने आप को समझ जाइये आप दूसरों को समझ जायेंगे। और रही बात ईश्वर को पाने की या प्रेमी-प्रेमिका को पाने की तो पहले उनके जैसा बन जाइये तो कठिनाई कहा रहती हैं ? ईश्वर को पाना हो तो उनके जैसा बनना आवश्यक हैं तभी आप उन तक पोहोचेंगे। इसलिए बस प्रेम कीजिये बिना छल कपट किये। हम किसी के पीछे या आगे छल कपट करते हैं तो दरअसल हम उन्हें ही नहीं अपितु अपने आप से छल कर रहे हैं। क्योंकि अंतरात्मा का यह स्वाभाव हैं ही नहीं। इसलिए अंतर् आत्मा ही हमें शिक्षा देती हैं। तो कभी प्रेम में मिलावट मत करना तभी आपका प्रेम आपके पास आपके साथ होगा।
प्रेम या मोह : प्रेम को पाने के लिए तो भगवन भी मनुष्य का जन्म कितनी बार ले चुके हैं, उसे क्या आवश्यकता थी की वो किसी को अपना भक्त बनाये या उसे प्रेम करें ? क्योंकि यही तो सत्य हैं, प्रेम। क्या वो यह सोचते हैं की ये नींच जात का हैं मैं नहीं जाऊंगा मेरी तपस्या भांग होगी मैं मैला हो जाऊंगा ? तो फिर वो भगवान कैसे ? यदि ऐसा होता तो वाल्मीक ऋषि ऋषि न कहलाते तुलसीदास संत न कहलाते। कहने का ताप्तर्य यह की प्रेम सबके लिए एक सामान है और प्रेम को सब एक समान हैं। जब भगवान किसी भक्त के घर जाने से या उसे अपनाने से नहीं चुके तो हम और आप किस अहंकार में जी रहे हैं ? शरीर के अहंकार में? क्या ये सब आपके साथ रहेगा ? यह तो नश्वर हैं पर आत्मा तो अमर है जो सत्य हैं, प्रेम हैं। और प्रेम किसी जाती से, धरम से, और संप्रदाय से, सम्बंधित नहीं होता हैं। वह सिर्फ आत्मा से सम्बंधित होता हैं। और आत्मा हर जनम यही प्रेम गुण ले आएँगी अपने साथ पर शरीर तो अलग ही रहेगा न क्या स्त्री ? क्या पुरुष? वो तो हर जनम प्रेम करेंगी। जातियों को छोड़िये खुद को जागरूक कीजिये की पहला धर्म हमारा मानव है तो मानव ही मानव से पहचाने प्रेम ही प्रेम को जाने तब आप देखेंगे की घृणा में कोई अर्थ नहीं प्रेम ही सत्य हैं। इसलिए कहा क्योंकी आप निरंतर किसी को प्रेम कर सकते हैं पर घृणा नहीं और घृणा हमारे मष्तिष्ख से उत्पन्न होती हैं और वो चंचल होती हैं और प्रेम ह्रदय से होता है आत्मा से होता हैं इसलिए प्रेम अनंत हैं। कभी न ख़तम होने वाला उसे अनंत कहते हैं। हम जिस जाती में आते हैं उस जाती धरम का भी भला करें और अन्य जाती धर्मो का भी भला करे। पर पहले मानव बने और वो संभव हैं प्रेम से अध्यात्म से। ज़रा और गहरायी में लेकर चलती हूँ आपको, बताइए पिछले जन्म में आप क्या थे क्या आपको ज्ञात हैं ? आज जिस किसी भी जाती धर्म में आप हैं और किसी विरुद्ध जाती का आप अपमान करते हैं तो क्या आपको पता चले की आप भी किसी जन्म में उसी जाती धर्म में पैदा हुए थे जिसकी आप आज घृणा कर रहे हैं, तो क्या होगा ? तो फिर आप अपने आपसे भी घृणा करेंगे ? नहीं न ? तो जिस तरह से आप अपने आपको क्षमा करते हैं प्रेम करते हैं उसी प्रकार से औरों को भी क्षमा और प्रेम कीजिये। आप देखेंगे की धीरे धीरे आप प्रेम होते जा रहे हैं।
क्या ये संभव हैं? जी संभव हैं तभी तो कह रही हूँ। मेरी न सुने अपनी आत्मा की सुनिए क्या वो प्रेम नहीं चाहती ? तो फिर किस बात को लेकर इतने चिंतित हैं आप? जिसे आप पाने की कोशिश करते हैं और वो जो आपके पास नहीं हैं तो, आपको उस बात के तरफ एक अजीब सा खिंचाव होता है। जो कभी आपको शांत रहने ही नहीं देता। यह जो जलन, ईर्ष्या, भेदभाव, अविश्वास, तड़प, बेचैनी, बेकरारी, चिंता, अपना बनाने की पागलपंती, जूनून, झटपटाहट, डर, घुस्सा, वासना और रोग यह सब विकार मोह में होता हैं।और इनमे से आप भी इस विकार के आदि होंगे। क्योंकि हम मनुष्य हैं और ये स्वभाविक हैं। पर हम बदल सकते हैं यदि हम बदलना चाहे तो। और जहा सुकून, शांती, अभय, आनंद, चिंतन, क्षमा, गहरा विश्वास, सहनशीलता, समर्पण, त्याग, मोक्ष, निरोगता, निडरता और एक गहरी समझ होती हैं वह प्रेम हैं। हम जो शरीर से करते हैं वो मोह हैं क्योंकि हम सिर्फ शरीर देखते है पर प्रेम, प्रेम तो आत्मा से आत्मा का होता हैं जहा कोई भी भेदभाव नहीं होता। शरीर से चाहे आप कितने भी दूर हो परन्तु आत्मा, आत्मा के करीब होती हैं और यह, प्रेम होता हैं। पसंद करने में और प्रेम करने में धरती-आकाश का अंतर होता हैं। जहा आप एक क्षण भी दूर नहीं रहते या आपकी सोच भी क्षण भर भी दूर नहीं रहती उनके विचारों से तो, यह प्रेम है। जिसमे तड़प चाहे जितनी हो पर उदंडता बिलकुल भी न हो वह प्रेम हैं। जहा दूरियां कितनी भी हो पर वहाँ सहनशीलता हो वह प्रेम हैं। जहा आप पसंद करते हैं और उसे पाने की इच्छा करते हैं वो मोह हैं। और आप जो जैसा हैं और वैसे ही रूप में उसे चाहते हैं बिना बदलाव के बिना तुलना के और जो जहा है उसे उसी हाल में खुश देखना या उसकी ख़ुशी का ध्यान रखना उसका सम्मान करना स्वतंत्र छोड़ना ही प्रेम होता हैं। जिसे निस्वार्थ प्रेम कहते हैं। आप बुरी आदत बदलने में सहायता अवश्य कर सकते हैं पर पूर्ण सैय्यम के साथ तो वो प्रेम हैं। जो जानवर के स्वाभाव वाले व्यक्ति को भी इंसान बना देता हैं वो प्रेम हैं। जो स्वतंत्र है और रहता हैं हमेशा वो प्रेम हैं। मोह बांध के रखता हैं अच्छे बदलाव को कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पता, जिसे खोने का डर हमेशा मन में पनपता हैं जिसमे खुद का स्वार्थ छिपा हुआ रहता हैं जो बंधन को पार नहीं करने देता वो मोह हैं। पर यदि आपकी मेहनत, धृढ़ विश्वास, समर्पण भाव हो, त्याग हो, अपने गुरु के प्रति, इष्ट के प्रति, अपने प्रेम के प्रति तो आपकी जीत अटल हैं। यदि आप जिस किसीको सच्चे ह्रदय से प्रेम करते हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता की वो आपके पास लौट कर न आएं। मोह बंधन में रखती हैं और प्रेम स्वतंत्र। मोह अपमान करता हैं और प्रेम सम्मान। मोह सीमा में रखता हैं और प्रेम सीमा पार होता हैं। मोह छलकपट से भरा होता हैं और प्रेम निश्चल रूप से। मोह बंधन बनाता हैं और प्रेम संबंध। जिन्हे आप प्रेम करते है उन्हें स्वतंत्र छोड़ दीजिये जाने दीजिये, अगर उनका प्रेम भी सच्चा हैं तो वो हर परिस्थिती में अवश्य लौट कर आएगा। मोह आपको अंदर ही अंदर मारता हैं और प्रेम आपको जीना सिखाता हैं। प्रेम बहोत शक्तिशाली होता हैं। इसलिए इसे पाने वाला भी व्यक्ति उतना ही मजबूत होना चाहिए। और जो प्रेम करता है वो अपने आप ही मजबूत बन जाता हैं। उसमे वो सहनशीलता अपने आप ही प्रकट होती है। प्रेम को पाने के लिए बहोत तपस्या करनी पड़ती है जैसे की अपने तपोबल से, ध्यान से, ज्ञान से, शुद्ध विचार से, शुद्ध आचरण से शुद्ध कर्मो से और सेवा-भाव से, क्षमा करने से। और ये सब संभव हैं। प्रेम में आप यदि किसी जीव को आत्मा समझकर प्रेम करते हैं तो आप अध्यात्मिक हैं। क्योंकि अध्यात्म आत्मा से जुड़ा हुआ हैं। जहा अटूट विश्वास और प्रेम होता हैं।
आत्मा का स्वाभाव गुण ही प्रेम हैं। तो आपकी आत्मा आपको वही ले जाएगी जहा उसे प्रेम महसूस होता हैं। एक बार यदि आपने जान लिया की आपका सत्य प्रेम क्या हैं? तो आप कभी भी क्षण भर दूर नहीं रहेंगे। मैं यहाँ आत्मा की बात कर रही हूँ शरीर की नहीं जब शरीर से मिलना हो तो वक्त पर आप मिल ही जायेंगे आपको नियति भी रोक नहीं पायेगी। प्रेम कोई दो चार दिन का खेल नहीं होता हैं, ये एक तपस्या और पूंजी होती हैं। और यह विश्वास से प्रकट होता हैं। इसलिए हर क्षण आप जिस रिश्ते में है उसे हर क्षण संभालना पड़ता हैं। ये हर दिन आपको करना पड़ेगा तभी ये सफल, अटूट, और अमर बनता हैं। प्रेम पवित्र गंगा हैं जो निरंतर आत्मा से बहता हैं। जिस दिन आपकी आत्मा जागरूक हो गयी तो सबसे पहले आप अपने विचारों को समझेंगे प्रेम करेंगे जो आप चाहेंगे वही दृष्टि आप अन्य लोगों के प्रति भी रखेंगे। आप हमेशा देने के विषय में सोचेंगे लेने के नहीं। और जिसने प्रेम पा ही लिया हैं तो फिर उसे किस बात की आवश्यकता होगी ? प्रेम अपने आप में एक सम्पूर्णता हैं और ये एक जीवन में असंभव हैं। पर जीवन के हर प्रतिक्षण में साक्षी भाव रहना की, जो कुछ भी हो रहा हैं उससे में परिचित हूँ और साक्षी भी। कई जनम आप अपना समर्पण भाव रखेंगे तभी ये पाप कर्मो को मिटाकर किसी एक जनम में आपके जीवन में उच्च कोटि का प्रेम प्राप्त होता हैं। तब आपको प्रेम उपलब्ध होता हैं तब आपको इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। अगर आपको ऐसा प्रेमी या प्रेमिका मिले हैं तो जाने मत देना सम्मान करना उनका वे सदैव आपको समर्पित रहेंगे ऐसा प्रेम यदि मिल गया तो समझ लेना बहोत तपस्या की थी किसी जनम में ऐसा उच्च प्रेम पाने के लिए और आपको वो मिल गया किसी ज़्यादा मेहनत किये।
यदि आपसे कोई भी चूक हो गयी हो और आपका मन अशांत हैं तो प्रायश्चित कीजिये वही प्रेम हैं किंतू यह प्रायश्चित भी पूर्ण समर्पित भाव से हो तो वो प्रेम है शुद्ध प्रेम है क्योंकि आपका मन शुद्ध हैं। किसीकी गलतियों को क्षमा कर देना ही प्रेम हैं चाहे वो कितना भी बड़ा पापी हो क्षमा करना आवश्यक हैं। क्योंकि आपकी गलतियों को भी भगवान क्षमा कर देते हैं तो हमने यह समझना चाहिए की हमारी गलतियों पर भगवान यदि माफ़ी देती हैं तो हमने भी सामने वाले को क्षमा कर देना चाहिए। क्यूंकि हम और आप उनके अंश हैं, और जिस दिन आप ये गुण जागरूक कर लेंगे उस दिन आप प्रेमी बन रहे हो या बन गए हो ऐसा समझिये। क्षमा, दया, करुणा यह सब प्रेम के रूप हैं और आत्मा के गुण हैं। प्रेम को पाना कठिन नहीं पर प्रेम को समझना भी कठिन नहीं तो प्रेम बन जाना कठिन होता हैं और यही जीवन का सत्य हैं। संतों की नज़र में और मेरी नज़र में एक ही बात हैं की जहा प्रेम नहीं, सम्मान नहीं, आदर नहीं, इज़्ज़त नहीं वह क्षण भर भी नहीं रहना चाहिए। ऐसा न किया तो जीवन भर दुखी ही रहेंगे। परन्तु अपमान तो हमारे अपने ही सबसे ज़्यादा करते है पराये लोगों में इतना साहस कहा ? क्यूंकि आपमें वो क्षमता नहीं की किसी की उदांता को सहन कर सके मुंह तोड़ प्रेम से उत्तर दे सके इसलिए हम दुखी और मायूस हो जाते हैं और जीवन ऐसा ही दुःख देता हैं और वो चक्र ख़तम नहीं होता न होगा। यदि ख़तम हो जाएं तो फिर यह प्रेम की अनुभूति कहा से होगी? कैसे होगी ? बुराई होगी तभी तो अच्छाई का मतलब होगा। अन्यथा प्रेम अर्थ कहा समझ आएगा ? और जिसे प्रेम समझ आएं वो इंसान ही कहा रहा ? वो तो नर मानव से महामानव बन जाता हैं नर से नारायण हो जाता हैं तो बचता क्या हैं ? कुछ भी नहीं। और यदि आपमें वो क्षमता हैं की किसी की बदतमीज़ी, उदंडता सही जाएं तो यह आध्यात्मिक प्रेम के बिना असंभव हैं। निरंतर खुदको भी और दूसरों को भी क्षमा करने की ताक़त सिर्फ और सिर्फ आध्यात्मिक प्रेम में होती हैं तभी आप किसी का मन परिवर्तित कर सकते हैं। तो प्रेम मांगिये नहीं प्रेम स्वयं बन जाइए, तब प्रेम आपके भीतर से अतः बहेगा। जो बात आपके पास नहीं हैं वो निर्माण कीजिये और औरो को भी बाँटिये। यही प्रेम हैं और यही अध्यात्म हैं। प्रेम और अध्यात्म के ऊपर चर्चा करना यह बहोत गहन अध्ययन हैं जिसे समझ आये उसी ही समझ आती हैं इस पर जितना बोलू या लिखू उतना काम हैं। पर विश्वास हैं मुझे की आपको प्रेम और अध्यात्म समझ में आया हो, यह मैंने एक कम शब्दों में बताने की कोशिश की हैं। यदि कोई भी परेशानी या तकलीफ हो तो बेझिझक मुझे यहाँ सन्देश छोड़ सकते हैं। और अगर आप निवांत में मुज़से कुछ पूछना चाहते हैं तो आप मुझे ईमेल से संपर्क कर सकते हैं। फेसबुक, इंस्टा, या पिनटेरेस्ट से आप जुड़ सकते हैं। आप सभी को यह शुभकामनाएं देती हूँ और यही प्रार्थना हैं मेरी की आप भी अपने आपको अध्यात्म रूप से मजबूत करने की कोशिश करें और उच्च कोटि का प्रेम शिवशक्ति सा प्रेम अपने जीवन में पाएं । अगले लेख में मैं कुंडलिनी षष्टचक्र का भेदन कैसे होता हैं ये विस्तार से बताने की कोशिश करुँगी विषय बहोत लम्बा होगा इसलिए अंकों की श्रृंखलाओं में लिखूंगी तो आप धैर्य बनाये रखे और मुज़से जुड़े रहिये। आगे भी इस लेख को अवश्य भेज दीजिये क्या पता किसी की सहायता हो जाएगी आपकी एक छोटी सी कोशिश से ? तो अब मैं अपने शब्दों को विराम और आपके किंमती समय को प्रणाम करते हुए आपसे विदा लेना चाहती हूँ। प्रभु आप सभी पर कृपा आशीर्वाद बनाये रखे, आनंदित रहिये ,प्रेम कीजिये स्वस्थ रहिये। आपके घर में बरकत रहे और आपका जीवन आबाद रहे।
🙏 जय गुरुदेव, हर-हर महादेव। 🙏
Bhut bdhiya ❤
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जवाब देंहटाएंGuruji,apko safar pranam.Aoki lekh padti hu mujhe bhut achchi lagti ha.Mai ek juduwa atma hu,Aur mai shadi shuda bhi hu. Mujhe ab kya krna chahiye pls boliye.mujhe aoki bat bhut psnd ati hai,mujhe help mre pls.
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