आपका बहोत बहोत स्वागत हैं आध्यात्मिक जगत में। आपके प्रेम और आशीर्वाद के लिए आपका पुनः पुनः ह्रदय से मैं धन्यवाद् करती हूँ। जो आप मेरे लेख में अपनी रूचि व्यक्त कर रहे हैं आपका एक बार धन्यवाद् करती हूँ। आज आपके लिए मैंने वट पौर्णिमा के अवसर पर वट सावित्री पौर्णिमा माँ की कथा लेकर आयी हूँ। यह व्रत ज्येष्ठ माह में अमावस के दिन भी मानते हैं और कोई पूर्णिमा को भी मानते हैं। यहाँ महाराष्ट्र में पूर्णिमा के दिन यह व्रत मानते हैं। इस दिन सुहागने अपनी पति के स्वतः और लम्बी आयु की कामना के लिए ये व्रत धारण करती हैं ताकि उन्हें अखंड सौभाग्यवती का वरदान प्राप्त हो और हर जनम में इसी पति को प्राप्त करें। इस कारण से भी यह व्रत होता हैं। परन्तु स्त्री के व्रत से ही ये संभव नहीं होता इसमें पति पुरुष का भी उतना ही स्नेह, सहयोग, विश्वास, भी होना चाहिए तभी ये दोनों बराबर मात्रा में व्रत सफल होता हैं। बात यहाँ एक पति व्रता की हैं की कैसे एक स्त्री ने अपने पति के प्राण यमराज से छीन लाये थे ? ताकि इनके जैसा प्रेम, निष्ठा, विश्वास और सैय्यम हर व्यक्ति में रहे चाहे वे स्त्री हो या पुरुष। यदि आपका प्रेम और विश्वास और निश्चय दृढ हैं तो आप भी अपने जीवन में खोया हुआ प्रेम पुनः प्राप्त कर सकते हैं। आज इनकी कथा पढ़कर आपके भी मन में सावित्री माँ जैसा विश्वास और दृढ निश्चय मन में प्रकट होगा। और मुझे यह पूर्ण मुझे विश्वास हैंकी ऐसा ही होगा।
यह कथा द्वापरयुग की प्रसिद्ध कथा हैं की मध्यप्रदेश में एक अश्वपति नाम के परम ज्ञानी राजा थे। धन-वैभव से पूर्ण होने पर भी वे संतान के अभाव में बड़े दुखी रहते थे। राजा ने पंडितों की सलाह से पुत्र प्राप्ति के लिए सावित्री की अराधना की सावित्री ने प्रसन्न होकर राजा रानी को दर्शन देकर आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हारे भाग्य में पुत्र तो नहीं है पर मैं स्वयं कन्या रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूंगी इतना कहकर सावित्री देवी अंतर्ध्यान हो गई। उस समय बाद रानी के गर्भ से साक्षात सावित्री का जन्म हुआ राजा रानी ने उनका नाम भी सावित्री ही रखा सावित्री सर्वगुण संपन्ना थी। वह अति सुन्दर और मनमोहक चंद्रमा की कला के समान नित्य प्रति बढ़ने लगी। जब विवाह के योग्य हुई तब माता-पिता ने उससे कहा कि अब तुम अपने योग्य मनचाहा वर खोज लो। राजा ने उसे एक बूढ़े मंत्री के साथ वर खोजने के लिए भेज दिया। सावित्री यात्रा पर रवाना हो गई इधर एक दिन अचानक नारद जी मंत्री राष्ट्रपति से भेंट करने के लिए आए तभी सावित्री भी अपने लिए वर पसंद करके लौट आई। उसने आदर पूर्वक नाराद जी को प्रणाम किया नाराद जी ने उसे विवाह योग्य देखकर राजा अश्वपति से पूछा कि आपने इसके लिए योग्य वर खोजा है या नहीं, राजा ने बताया कि मैंने सावित्री को वर खोजने के लिए भेजा था। वह भी लौट कर आई है और अब वही बताएगी कि उसने अपने पति रूप में किसे पसंद किया है। सावित्री ने बताया कि, साल्व देश के महाराज राजा द्युमत्सेन का राज्य उनके शत्रु ने छीन लिया है और राजा और रानी अंधे होकर रानी के साथ वन में रहते हैं। उनके एकमात्र पुत्र सत्यवान को देख मुझे वे पति के रूप में योग्य दिखे और उन्ही को मैंने अपना पति बनाने का निश्चय किया है। सावित्री के ऐसा कहने पर नारद जी ने राजा अश्वपति से कहा कि आपकी कन्या ने उचित वर खोजा हैं निसंदेह भारी परिश्रम किया है। सत्यवान गुणवान और धर्मात्मा है वह रूपवान और समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है। वह अपने माता पिता के भांति सदा सत्य बोलने वाला है। इसी कारण उसका नाम सत्यवान हुआ। वह सब प्रकार से सावित्री के योग्य है वह सब बातों में सावित्री के साथ क्षमता रखता है। किन्तु उसमें एक भारी दोष है। वह अल्पायु है और 1 वर्ष की समाप्ति पर उसकी मृत्यु हो जाएगी। नारद जी के मुख से यह वचन सुनकर राजा अश्वपति का चेहरा उदास हो गया और उन्होंने सावित्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना कल्याण कारक नहीं है। इसलिए कोई अन्य वर पसंद कर लो। पिता की बात सुनकर सावित्री ने कहा कि अब मैं अन्य पति को खोजने का विचार नहीं कर सकती। मैंने जिसे एक बार अपने मन से पति स्वीकार कर लिया है वही मेरा पति होगा मैं किसी दूसरे का वरण किस प्रकार कर सकती हूं। राजा एक ही बार आज्ञा देता है पंडित एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं और कन्यादान भी एक ही बार होता है जैसा भी है अब वो मेरा पति है। मुझे उसके दीर्घायु या अल्पायु होने से कोई हर्ष विषाद नहीं है। मैं पुर्ण दृढ़ता पूर्वक कहती हूं कि सत्यवान ही मेरा पति होगा। सावित्री का ऐसा संकल्प सुनकर राजा ने सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ ही कर देना चाहिए यही उचित होगा यह सोचकर वे मान गए। राजा अश्वपति ने विवाह की समस्त सामग्री इखट्टी की और कन्या तथा बूढ़े मंत्री को साथ लेकर द्युमत्सेन की तपोभूमि में पहुंच गए। वहां पर राजा द्युमत्सेन अपनी रानी और राजकुमार सत्यवान के साथ रहते थे। तो अश्वपति ने उनके पास पहुंचकर अपने पुत्री सावित्री का विवाह उनके पुत्र सत्यवान से करवाने का प्रस्ताव रखा। परन्तु राजा ध्रुमत्सेन ने उनका सारा सत्य बताकर उन्हें समझाया परन्तु सावित्री को सब ज्ञात होने के पश्च्यात भी सावित्री का निर्णय टस से मस न हुआ और सावित्री का दृढ़ निर्णय को देखकर उन्हें ने भी इस विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और विवाह की स्वीकृति दे दी।सती सावित्री और पति सत्यवान |
शास्त्र सम्मत रीति से सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ करके राजा अश्वपति अपनी राजधानी को लौट गए और उधर सावित्री मनचाहे पति सत्यवान को पाकर सुख पूर्वक वन में रहने लगी। नारद जी के वचन हर समय सावित्री के कानों में गूंजते रहते थे। वह एक-एक दिन गिन रही थी उसने जब पति की मृत्यु का दिन निकट आया यह जाना तो 3 दिन पहले से ही उसने उपवास आरंभ कर दिया। तीसरे दिन अपने पितरों का पूजन किया वही दिन नारद जी ने सत्यवान की मृत्यु का बताया था। रोज की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर कुल्हाड़ी और टोकरी लेकर लकड़ी काटने के लिए वन में जाने लगा तो सावित्री ने स्वयं भी उसके साथ चलने का आग्रह किया। सत्यवान ने उसे माता पिता की सेवा के लिए वही ठहरने की सहमति दी तब सावित्री अपने सास-ससुर से सत्यवान के साथ वन में जाने की आज्ञा ले आई और उसके साथ वन को चलने को तैयार हुई सत्यवान ने वन पहुंचकर फल फूल तोड़े और बाद में लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ गया। वृक्ष के ऊपर ही सत्यवान के सिर में भारी पीड़ा होने लगी वृक्ष से नीचे उतरा और सावित्री की गोद में अपना सिर रख कर लेट गया। कुछ देर बाद सावित्री ने यमराज को हाथ में पास लिए हुए अपनी ओर आते देखा। पहले तो यमराज ने सावित्री देवी विधान सुनाया और फिर भी सत्यवान के अंकुश मात्र जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चले गए। सावित्री यमराज के पीछे पीछे चलने लगी जब बहुत दूर तक भी उसने यमराज का पीछा ना छोड़ा तो उन्होंने उससे कहा कि हे पतिव्रता जिस सीमा तक एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का साथ दे सकता है, वहां तक तुमने पति का साथ दिया अब तुम घर लौट जाओ सावित्री ने कहा धर्मराज जहां मेरे पति जा रहे हैं वहां मुझे भी जाना चाहिए यही सनातन धर्म है। पति व्रत के प्रभाव और आपकी कृपा से कोई भी मेरी गति नहीं रोक सकता सावित्री के ऐसे धर्म पूर्ण वचन सुनकर यमराज ने प्रसन्न होकर उसे एक वर मांगने के लिए कहा सावित्री बोली कि मेरे सास-ससुर वन में रहते हैं और अंधे हैं मैं आपसे यही मांगती हूं की उनकी दृष्टि पुनः लौट आये यमराज ने तथास्तु कहा और उसे पुनः लौट जाने की सलाह दी। यमराज की बात सुनकर सावित्री ने कहा भगवान जहां मेरे पतिदेव जाते हो वहां उनके पीछे-पीछे चलने में मुझे भी कष्ट या परिश्रम नहीं है, पति परायण होना मेरा कर्तव्य है। सावित्री के ऐसे धर्म युक्त और श्रद्धा पूर्ण वचन सुनकर यमराज ने फिर कहा सावित्री मैं तुम्हारे वचनों से बहुत प्रसन्न हूं। तुम मुझसे एक वरदान और मांग सकती हो। सावित्री ने कहा हमारा राज्य छिन गया है उसे पुनः प्राप्त करें और धर्म में हमारी सदैव प्रीति रहे यही वरदान मुझे दीजिए यमराज ने तथास्तु कहकर उसे लौट जाने को कहा किंतु वह न मानी और बराबर पीछा करती रही। उसकी ऐसी पति भक्ति देख यमराज ने प्रसन्न होकर उसे तीसरा वरदान देने की इच्छा प्रकट की तब सावित्री ने अपने कुल की भलाई को दृष्टि में रखकर १०० भाई होने का वरदान मांगा यमराज ने यह वरदान भी दे दिया। सावित्री से आगे ना बढ़ कर लौटने का आग्रह किया किंतु सावित्री अपने प्राण पर अडिग रही। सावित्री की निष्ठा और दृढ़ संकल्प देखकर यमराज का हृदय पसीज गया और विनम्र वाणी में बोले सावित्री धर्म युक्त और गंभीर युक्ति पूर्ण वचन कहती हो कि मेरे ह्रदय में तुम्हारे लिए और सम्मान बढ़ता है। अतः तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर एक और वरदान मुझसे ले लो और अपने घर लौट जाओ। सावित्री ने विलम्ब न करते हुए सत्यवान से 100 पुत्र होने का वरदान मांगा और कहा की मैं एक पतिव्रता नारी हूँ और सती भी, तो मेरे लिए किसी पर पुरुष का विचार भी पाप हैं तो मैं अपने पति के बिना १०० पुत्र कैसे प्राप्त करुँगी ? सावित्री के संयुक्त पूर्ण वचन सुनकर यमराज बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उसे वरदान देते हुए सत्यवान को पास से मुक्त कर दिया और कहा सत्यवान से तुम्हें निश्चय ही 100 पुत्र होंगे। सावित्री को मनोवांछित वरदान देकर यमराज वही अंतर्ध्यान हो गए। सावित्री लौटकर वटवृक्ष के नीचे आई वटवृक्ष के नीचे सत्यवान का मृत शरीर पड़ा हुआ था। उसमें जीवन का संचार हो गया और वह उठ कर बैठ गया सावित्री ने सत्यवान को सारा वृत्तांत सुनाया और फिर वे दोनों खुशी-खुशी आश्रम की ओर चलें गए। सत्यवान के माता-पिता को दृष्टि प्राप्त हो गई थी और उन्हें अपना राज पांठ भी अब मिल चूका था। सारे देश में सावित्री के अनुपम पतिव्रत का समाचार फैल गया परिजनों ने महाराज द्युमत्सेन को ले जाकर आदर पूर्वक आसन पर बैठाया सावित्री के पिता अश्वपति को भी 100 पुत्र प्राप्त हुए और सावित्री सत्यवान ने भी 100 पुत्र प्राप्त करके दीर्घायु तक राज्य भोगा और अंत में बैकुंठ पधारे। एक कथा ऐसी भी थी की वटवृक्ष ही माँ सावित्री हैं और उनकी इस दिन पूजा करने से वे सुहागन स्त्रीयोँ को अखंड सौभाग्यवती का वरदान देती हैं और जिस पति की कामना के लिए व्रत किया हो वो उसीके को साथ जनम प्राप्त करती हैं। एक सौभाग्यवती स्त्री के लिए यह व्रत करना आवश्यक है। वट सावित्री की व्रत कथा एक पवित्रता और सती की था है जो यह उदहारण देती हैं की प्रेम और आपका विश्वास सच्चा है और पक्का हैं आप कोई भी बात को संभव क्र सकती हैं किन्तु यह सिर्फ नारियों के लिए ही नहीं किन्तु पुरुषों के लिए भी हैं की जितनी नारी पतिव्रता हो उतना ही पुरुष अपने पत्नी क लिए पत्नीव्रता हो तभी रिश्ता एक अटूट बंधन में बांधता हैं। आशा करती हूं की आपको कथा पसंद आई होगी पसंद आई होगी तो आप भी अपने रिश्ते में उतना ही प्रेम और विश्वास और साथ स्थिर रहें। इसी के साथ अब मैं विदा लेती हु और पुनः किसी एक नायें विषय के साथ आपसे मिलती हूँ तब तक आप अपना और अपनों का ध्यान रखे। प्रभु आप सभी पर कृपा, आशीर्वाद, प्रेम और आनंद प्रदान करें। आपके घर में बरकत रहे और आपका जीवन आबाद रहे।
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